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सनातनता का अमृत पर्व महाकुंभ,

सनातनता का अमृत पर्व महाकुंभ, आचार्य मिथिलेशनंदिनीशरण। गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम पर तीर्थराज प्रयाग में आयोजित होने वाला महाकुंभ धरती के किसी एक स्थल पर होने वाला मनुष्यों का सबसे बड़ा समागम है। भारत की एकात्मता, इसकी संगठन शक्ति, इसके सहभाव और सामंजस्य का अप्रतिम उदाहरण है महाकुंभ। इस महापर्व पर देश कठिन शीत में सुदूर स्थानों से संगम में कल्पवास करने, पर्व स्नान करने, अक्षय वट दर्शन और इस बहाने विराट रूप में प्रकट ‘भारत-पुरुष’ का साक्षात्कार करने चला आता है।

यह भारत-पुरुष अमृत-पुरुष है। इसका धर्म सनातन है। इसकी संस्कृति विश्ववारा है, वसुधा इसका कुटुंब है और विश्वमात्र का समुत्थान इसकी प्रतिज्ञा। महाकुंभ इसी अमृत-पुरुष भारत का विलक्षण प्राकट्य है। इस पर्व की पृष्ठभूमि देखने चलें तो, इतिहास-पुराण के अनेक प्राचीन पृष्ठ हमारे सम्मुख उभरते हैं। देवासुर-संग्राम, कद्रू-विनता का द्वंद्व और भगवान धन्वंतरि द्वारा प्रदत्त अमृत-कुंभ की प्राप्ति से संबद्ध अनेक रोचक कथाओं के अध्याय कुंभ की कथाओं में निहित हैं। वस्तुतः व्यष्टि के समष्टि में योजित हो जाने के असाधारण अनुभव की प्रयोगशाला है महाकुंभ।

परिगणित काल-बोध के पूर्व से प्रवाहित त्रिवेणी में हमारे इतिहास-बोध के प्रेत मुक्त हो जाते हैं। अनगिनत पीढ़ियों के अविच्छिन प्रवाह की साक्षी गंगा, अपनी अबूझ कर्म-परंपरा की यमुना और गोत्रकार ऋषि से लेकर होनहार वंशजों तक अदृष्ट, किंतु अक्षुण्ण सरस्वती के सम्मुख अपने होने-न होने का तुच्छतर प्रमेय निरस्त हो जाता है। पितरों के तर्पण और पुत्र-पौत्रों के मंगल की प्रार्थना करती पीढ़ी पूर्वजों से वंशजों तक अपनी सनातन उपस्थिति को देख पाती है। पुत्रों के रूप में विद्यमान पिता, शिष्यों के रूप में विद्यमान गुरु और सहस्राब्दियों में इन सबको समेटे हुए महाकुंभ सनातनता का अमर उद्गीथ बनकर प्रकट होता है।

प्रत्येक 12 वर्षों के अंतराल में होने वाला महापर्व उस तीर्थराज प्रयागराज में हो रहा है, जो गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम है। यह हमारे धार्मिक-पौराणिक भूगोल की पवित्रतम भूमि होने के साथ ही हमारे आध्यात्मिक सांस्कृतिक-देशकाल-बोध का भी चिरंतन प्रमाण है। अपनी प्राचीनतम ऋषि परंपरा से अनुप्राणित भारत कुंभ में अपनी अविच्छिन्न परंपरा का दर्शन करता है। सभी परंपराओं के प्रमुख आचार्य, जगद्गुरु, महामंडलेश्वर और संत-महंत यहां एकत्र होते हैं। अपने पौराणिक माहात्म्य, आध्यात्मिक अनुभव, ऐतिहासिक गौरव, सांस्कृतिक दिव्यता और भौगोलिक भव्यता के साथ ही वर्ष 2025 के महाकुंभ को एक अन्य विशेष योग प्राप्त हो रहा है।

यह योग है भारत वर्ष की स्वाधीनता का अमृतकाल। अमृत लाभ के संकल्प से समन्वित यह महाकुंभ पर्व हमारी राष्ट्रीय चेतना को भारत-पुरुष की समग्रता में पहचानने का मणि-कांचन योग है। कुछ समय पहले देश ने अपने स्वातंत्र्य के 75 वर्ष पूर्ण करते हुए व्यापक अमृत महोत्सव मनाया है। यह हमारे महान राष्ट्र की अखंडता, संप्रभुता, शौर्य एवं समृद्धि को रेखांकित करने अवसर है। यह प्रथम महाकुंभ है जब श्रीरामलला अपनी जन्मभूमि पर नव निर्मित भव्य मंदिर में विराजमान हैं।

यहां उन कुंभ पर्वों का स्मरण प्रासंगिक हो जाता है, जिनमें धर्म-संसद और विशाल समागमों के माध्यम से संतों, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा विश्व हिंदू परिषद समेत अनेक संकल्पशील संगठनों ने श्रीरामजन्मभूमि के निर्माण हेतु विमर्श किए, अपनी प्रतिज्ञाएं दोहराईं, संगठित हुए और आगे बढ़े। महाकुंभ हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का जीवंत स्मारक है। महाकुंभ ऐसे अवसर पर आयोजित होने जा रहा है, जब अनुच्छेद 370 की कुंठा हट चुकी है और भारत का मस्तक कहलाने वाला शिव-शारदा का केंद्र कश्मीर भारत की अखंडता एवं संप्रभुता का सहचर बन चुका है।

त्रिवेणी के जिस तट पर महाकुंभ आयोजित हो रहा है, उसी के तट पर त्रेता में धर्मविग्रह श्रीराम ने लोकमंगल हेतु अपनी वनयात्रा का स्वस्तिवाचन किया। इसके तट पर प्रेममूर्ति श्रीभरत ने पुरुषार्थ चतुष्टय का त्याग करते हुए भक्ति की याचना की। प्रयाग हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का सनातन पीठ है। आज यदि हम पुनः इसको साधिकार प्रयागराज कह पा रहे हैं तो इसके लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ धन्यवाद के पात्र हैं। उनकी अप्रतिहत ऊर्जा ने हमारे धार्मिक-सांस्कृतिक गौरव के प्रति हमारी आश्वस्ति को दृढ़तर किया है।

इस महाकुंभ की ओर देखते हुए देश की दिव्यता के कुछ और आयाम भी हमारी दृष्टि में आते हैं। भारत के केंद्रीय नेतृत्व की स्पष्ट प्राथमिकताएं और उनसे खुलते वैश्विक आयाम, सेवा-सुरक्षा-शिक्षा-चिकित्सा तथा समरसता से युक्त भारत को उद्भासित कर रहे हैं। अयोध्या, मथुरा, काशी, हरिद्वार, केदारनाथ, विंध्याचल समेत भारत के दिव्य तीर्थ अपने आध्यात्मिक गौरव में पुनः प्रतिष्ठित हो रहे हैं।

महाकुंभ हमारी समेकित दृष्टि, समन्वित पुरुषार्थ और सौजन्य पूर्ण सहकार का प्रमाण बनेगा। अपने सुखों के अनुसंधान में जीवन-समुद्र को मथने वाली मनुष्यता एक न एक दिन दुःसह विष के सम्मुख होती है। तब उसे कोई विषपायी नीलकंठ चाहिए, कोई मृत्युंजय चाहिए। उसे अमृत कलश के प्रकट होने तक का धैर्य चाहिए-जीवन चाहिए। भारत इस जगज्जलधि के मथे जाने पर भगवान धन्वंतरि के समान अमृत कलश लेकर उभरेगा, यही इतिहास है-यही विश्वास है और महाकुंभ का आयोजन इसी का प्रयास है।

(लेखक हनुमत धाम, अयोध्या के महंत हैं)

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