- 29°C Noida, Uttar Pradesh |
- Last Update 11:30 am
- 29°C Greater Noida, Uttar Pradesh
समुदायों की जागरूकता, शिक्षा और सहानुभूति से ही संभव है कट्टरपंथ को रोकना
ऑनलाइन सामग्री की सत्यता परखें, भ्रामक प्रचार को पहचानें और नफ़रत फैलाने वाले स्रोतों से दूर रहें युवा
कट्टरपंथ को रोकने में समुदाय की भूमिका अहम
कट्टरपंथ हमारे समय की सबसे पेचीदा सामाजिक और मानसिक चुनौतियों में से एक है, ऐसी चुनौती जो धर्म, जाति और राजनीति की सीमाओं को पार कर हर समाज को प्रभावित करती है। दुर्भाग्यवश, इस पर होने वाली अधिकांश बहसें समझ से ज़्यादा सनसनी पर आधारित होती हैं। मीडिया की हेडलाइनों, राजनीतिक बयानबाज़ी और सोशल मीडिया के रुझानों ने इसे कुछ समूहों तक सीमित कर एक हम बनाम वे की कहानी बना दिया है। नतीजा यह कि जिन समुदायों की भूमिका समाधान का हिस्सा होनी चाहिए, वे संदेह और अलगाव का शिकार हो जाते हैं।
वास्तव में, कट्टरपंथ का जन्म अचानक नहीं होता, यह सामाजिक अन्याय, पहचान के संकट, अकेलेपन और असंतोष की लंबी प्रक्रिया से उपजता है, इसलिए इसका समाधान भी केवल पुलिस या कानून के सहारे नहीं, बल्कि समुदायों की जागरूकता, शिक्षा और सहानुभूति से ही संभव है। जब परिवार, शिक्षक, धार्मिक नेता और स्थानीय संगठन इस प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार बनते हैं, तो कट्टरपंथ की जड़ें कमजोर पड़ने लगती हैं।
परिवार और शिक्षण संस्थान इस लड़ाई की पहली पंक्ति हैं। माता-पिता और अध्यापक यदि युवाओं में असहिष्णुता, अलगाव या हिंसक विचारों के शुरुआती संकेतों को पहचान लें, तो वे उन्हें सही दिशा में मोड़ सकते हैं। परंतु यह कार्य भय या कलंक के माहौल में नहीं, बल्कि भरोसे और संवाद के ज़रिए होना चाहिए। कट्टरपंथ को अपराध नहीं, बल्कि एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विचलन मानकर शुरुआती हस्तक्षेप के अवसर बढ़ाने होंगे। शिक्षा इस पूरी प्रक्रिया की सबसे मज़बूत ढाल है—ऐसी शिक्षा जो केवल जानकारी नहीं देती, बल्कि सोचने-समझने, सवाल पूछने और विविधता की सराहना करना सिखाती है। स्कूलों और धार्मिक संस्थानों को चाहिए कि वे आलोचनात्मक सोच, नैतिक मूल्यों और सह-अस्तित्व के पाठों को शिक्षा का हिस्सा बनाएँ। धर्मगुरु अपने संदेशों के माध्यम से यह स्पष्ट कर सकते हैं कि हर धर्म की आत्मा करुणा, न्याय और दया में निहित है, न कि द्वेष और हिंसा में।
डिजिटल युग में इंटरनेट और सोशल मीडिया ने कट्टरपंथ के प्रसार को नया माध्यम दिया है। अतः अब डिजिटल साक्षरता भी सुरक्षा का एक हिस्सा है। युवाओं को यह सिखाना आवश्यक है कि वे ऑनलाइन सामग्री की सत्यता परखें, भ्रामक प्रचार को पहचानें और नफ़रत फैलाने वाले स्रोतों से दूर रहें। मीडिया संस्थानों की भी यह नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वे हिंसा और विभाजन के बजाय संवाद, सहयोग और पुनर्वास की कहानियों को प्राथमिकता दें। स्थानीय स्तर पर सामुदायिक संगठन, धार्मिक संस्थाएँ और नागरिक समूह संवाद और विश्वास निर्माण के कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं। जब लोग अपने समाज में मूल्यवान और सुने जाने का अनुभव करते हैं, तो कट्टर विचारधाराओं की अपील स्वतः घट जाती है। सामुदायिक पुलिसिंग, युवा क्लब, मार्गदर्शन और पुनर्वास कार्यक्रम इस दिशा में सार्थक कदम हैं। दंड की जगह पुनर्स्थापन और पुनः एकीकरण पर ज़ोर देना दीर्घकालिक शांति की कुंजी है। इसके साथ ही, सामाजिक-आर्थिक न्याय और अवसरों की समानता भी कट्टरपंथ की रोकथाम में निर्णायक भूमिका निभाती है। जो युवा बेरोज़गारी, भेदभाव या राजनीतिक हाशिये से उपजे असंतोष में जीते हैं, वे चरमपंथ के लिए आसान लक्ष्य बन जाते हैं। इसलिए समावेशी विकास, कौशल प्रशिक्षण और नागरिक भागीदारी को मज़बूत करना उतना ही ज़रूरी है जितना कि सुरक्षा उपायों को। अंततः, कट्टरपंथ के विरुद्ध जंग केवल सरकार या कानून की नहीं, बल्कि पूरे समाज की साझी ज़िम्मेदारी है। सरकार को न्याय और समानता सुनिश्चित करनी चाहिए, धार्मिक नेताओं को एकता का संदेश देना चाहिए, शिक्षकों को विवेक और संवाद को प्रोत्साहित करना चाहिए, और मीडिया को संवेदनशीलता के साथ अपनी भूमिका निभानी चाहिए। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है कि समुदाय स्वयं सक्रिय, करुणामय और सतर्क बने रहें। कट्टरपंथ की जड़ें डर, अविश्वास और अज्ञान में हैं और इन्हें केवल ज्ञान, संवाद और मानवीय रिश्तों की गर्माहट से ही काटा जा सकता है। जब परिवार, शिक्षक, धार्मिक नेता और युवा मिलकर अपने समाज में भरोसे और सहिष्णुता का वातावरण बनाते हैं, तब वे न केवल कट्टरपंथ के खिलाफ़ सबसे मज़बूत ढाल बनते हैं, बल्कि एक शांतिपूर्ण, समावेशी और आत्मविश्वासी राष्ट्र की नींव भी रखते हैं।
(लेखक : जर्नलिस्ट कृष्ण प्रजापति कैथल से पिछले 12 सालों से पत्रकारिता कर रहे हैं और जनसंचार एवं पत्रकारिता में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र से स्नातकोत्तर हैं।)
0 Comment