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नोटिस देकर और वायरल कर फंस गए अमृत वर्मा!
-सोशल मीडिया पर जिलाध्यक्ष और कार्यालय प्रभारी की हो रही किरकिरी, नोटिस थमाने से अधिक वायरल को लेकर पार्टी के लोग ही कमेंट कर रहें
-आशीष कुमार शुक्ल सैनिक लिखते हैं, कि यह भी एक तरह से शक्ति प्रदर्शन हैं, लोग डरें, दबाव में रहे, अन्यथा इस नोटिस की कोई जरुरत ही नहीं थी
-धर्मराज गुप्त कह रहें है, कि संगठन को संगठन ही रहना चाहिए, प्राइवेट लिमिटेड नहीं बनना चाहिए, कुलदीप अग्रहरि ने कहा कि 14 से पहले भी मिलें बंद थी, तब सरकार नहीं थी, आज सरकार है, तब भी मिलें बंद
-राजन गुप्त लिखते कि पार्टी की आंतरिक बाते सोशल मीडिया पर नहीं आनी चाहिए, आपस में ही निपट लेना चाहिए था, बाहर आने पर पार्टी और कार्यकर्त्ता दोनों की बेईज्जती होती, जब कि दल और कार्यकर्त्ता दोनों सम्मानीय, इससे बाहरी मजा लेते
-रजत शुक्ल लिखते हैं, कि अगर बाहर नहीं लाएगें तो समाज को कैसे बताएगें कि उनका कद पार्टी और जिलाध्यक्ष के कितने निकट
-सुनील कुमार अग्रहरि कहते हैं, कि कार्यालय प्रमुख को पावर नहीं िकवह बिना अध्यक्ष की अनुमति के नोटिस जारी करें, रंजीत चौधरी लिखते हैं, कि भाई साहब धमेंद्र ने बहुत सही कहा है, कभी-कभी किसान का भी भला हो जाने दीजिए
-सत्यव्रत सिंह कहते हैं, कि एक ही पार्टी में प़ा और विपक्ष खड़ा करना कभी किसी के लिए लाभकारी नहीं रहा, इससे न संगठन को फायदा मिलता और न कार्यकर्त्ताओं को, उल्टे नुकसान ही उठाना पड़ता, और विरोधी ताकतें इसका लाभ उठाती, यह हम सभी ने विधानसभा और लोकसभा चुनाव में देख भी चुकें
-आमा के कुलदीप अग्रहरि कहते हें, कि धमेंद्र जायसवाल जैसा निष्ठावान कार्यकर्त्ता जो सिर्फ पार्टी के लिए दिनरात एक कर देता हैं, उसके उपर कार्रवाई निंदनीय, अगर जिलाध्यक्ष ने कार्यालय प्रभारी को कहा तो उन्हें भी माफी मांगनी पड़ेगी
-क्यों नहीं उस व्यक्ति को नोटिस दिया और पार्टी से निकाला जिसने सर्वाजनिक रुप से अमित शाह और हरश द्विवेइी को गाली दिया, बल्कि उसे जिले के प्रथम नागरिक की कुर्सी पर बैठा दिया
बस्ती। वैसे भी भाजपा में कार्यकर्त्ता अपनी उपेक्षा के कारण दुखी है, अगर ऐसे में नोटिस थमा दिया जाए तो वह और भी दुखी हो जाएगा। पार्टी के लोग कार्यकर्त्ताओं को तो नोटिस थमा देते हैं, लेकिन उन लोगों को नोटिस नहीं थमाते जो चुनाव में खुले आम पार्टी के प्रत्याशी को हराने के लिए गददारी और विष्वासघात करते है। धमेंद्र जायसवाल जैसे कर्मठी कार्यकर्त्ता ने तो कोई गददारी भी नहीं किया। सावल उठ रहा है, कि क्या कार्यकर्त्ता का अपना व्यक्तिगत कुछ नहीं होता? अगर किसी कार्यकर्त्ता को खाद नहीं मिला और अगर उसने अपनी पीड़ा बयां कर दी तो उसने कौन सा इतना बड़ा गुनाह कर दिया कि इसका प्रभाव पार्टी पर पड़ गया। पार्टी न तो कार्यकर्त्ताओं को कोई वेतन देती है, और न कोई भत्ता देती, धमेंद्र ने जो कुछ कहा वह उसकी आर्थिक से जुड़ा रहा। पार्टी के लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि कार्यकर्त्ता किसी का बंधुवा मजदूर नहीं होता, उसका अपना व्यक्तिगत जीवन भी होता और विचार भी होते। यह लोग सीधे कार्यलय में बैठने वाले साहब नहीं बल्कि सीधे जनता से जुड़े रहने वाले लोग है, अगर यह लोग जनता की आवाज और परेशानी नहीं उठाएगें तो चुनाव में वोट मांगने कैसे जाएगें? खाद की समस्या उठाकर एक तरह से धमेंद्र ने अपनी पीड़ा को बयां किया। यह उाकी स्वंय की पीड़ा थी। क्यों कि यह भी खाद के लिए परेशान रहा और इसे भी खाद नहीं मिला। भाजपा के लोगों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह अपने कार्यकर्त्ताओं को न तो दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पा रहे हैें, और न एक बोरी खाद ही दिला पा रहे है। लोगों का कहना है, कि नोटिस तो उस व्यक्ति को देना और पार्टी से निकाल देना चाहिए, जिसने अमित शाह और हरीश द्विवेदी को सार्वजनिक रुप से गाली दिया, उसे तो नोटिस नहीं थमाया, अलबत्ता उन्हीं लोगों ने अपने लाभ के लिए जिले के प्रथम नागरिक की कुर्सी पर बैठा दिया, जिसने गाली दिया। धमेंद्र का इसे व्यक्तिगत विचार मानकर छोड़ देना चाहिए था, अगर नोटिस दिया भी तो उसे वायरल नहीं करना चाहिए था? नोटिस देने वाले को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिसे आपनेे नोटिस थमाया वह चुनाव जीतकर मंडल अध्यक्ष बना।
सोशल मीडिया पर जिलाध्यक्ष और कार्यालय प्रभारी की हो रही किरकिरी, नोटिस थमाने से अधिक वायरल को लेकर पार्टी के लोग ही कमेंट कर रहें है। भाजपा के आशीष कुमार शुक्ल सैनिक लिखते हैं, कि यह भी एक तरह से शक्ति प्रदर्शन हैं, लोग डरें, दबाव में रहे, अन्यथा इस नोटिस की कोई जरुरत ही नहीं थी। इनका कहने का मतलब नोटिस के जरिए मंडल अध्यक्षों को डराने की मंशा रही, ताकि वह दबाव में रहें। धर्मराज गुप्त कह रहें है, कि संगठन को संगठन ही रहना चाहिए, प्राइवेट लिमिटेड नहीं बनना चाहिए। इस कमेंट पर जिलाध्यक्ष को विशेष ध्यान देना चाहिए। कुलदीप अग्रहरि ने कहा कि 14 से पहले भी मिलें बंद थी, तब सरकार नहीं थी, आज भाजपा की सरकार है, तब भी मिलें बंद है। राजन गुप्त लिखते कि पार्टी की आंतरिक बाते सोशल मीडिया पर नहीं आनी चाहिए, आपस में ही निपट लेना चाहिए था, बाहर आने पर पार्टी और कार्यकर्त्ता दोनों की बेईज्जती होती, जब कि दल और कार्यकर्त्ता दोनों सम्मानीय, इससे बाहरी लोग मजा लेते है। रजत शुक्ल लिखते हैं, कि अगर बाहर नहीं लाएगें तो समाज को कैसे बताएगें कि उनका कद पार्टी और वह जिलाध्यक्ष के कितने निकट है। सुनील कुमार अग्रहरि कहते हैं, कि कार्यालय प्रमुख को पावर ही नहीं कि वह बिना अध्यक्ष की अनुमति के नोटिस जारी करें। रंजीत चौधरी लिखते हैं, कि भाई साहब धमेंद्र ने बहुत सही कहा है, कभी-कभी किसान का भी भला हो जाने दीजिए। सत्यव्रत सिंह कहते हैं, कि एक ही पार्टी में प़क्ष और विपक्ष खड़ा करना कभी किसी के लिए लाभकारी नहीं रहा, इससे न संगठन को फायदा मिलता और न कार्यकर्त्ताओं को, उल्टे नुकसान ही उठाना पड़ता, और विरोधी ताकतें इसका लाभ उठाती, यह हम सभी ने विधानसभा और लोकसभा चुनाव में देख भी चुकें है। आमा के कुलदीप अग्रहरि कहते हें, कि धमेंद्र जायसवाल जैसा निष्ठावान कार्यकर्त्ता जो सिर्फ पार्टी के लिए दिनरात एक कर देता हैं, उसके उपर कार्रवाई निंदनीय, अगर जिलाध्यक्ष ने कार्यालय प्रभारी को कहा तो उन्हें भी माफी मांगनी पड़ेगी।
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