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क्या तत्कालीन डीएम की भूमिका धीरसेन को बचाने में रही?

क्या तत्कालीन डीएम की भूमिका धीरसेन को बचाने में रही?

-यहां पर भी एलबीसी कार्यालय की भूमिका सामने आया, जब इस संबध में सारे पत्राचार अनुभाग-1 से हो रही तो कार्रवाई के लिए अनुभाग-3 को भेजा

-डीएम की ओर से कार्रवाई के लिए अनुभाग-एक को जाना चाहिए था, उसे अनुभाग-3 को भेज दिया, जिसपर आज तक कार्रवाई नहीं हुई

-जब वित्तीय अनियमितता साबित हो गया तो क्यों नहीं डीएम की ओर से पदच्यूत करने की संस्तुति गई, क्यों रिकवरी की गई?

-तत्कालीन डीएम अंद्रा वामसी ने छह लाख 10 हजार 740 के वित्तीय अनियमितता के लिए चेयरमैन धीरसेन, ईओ रामसमुख और तत्कालीन लिपिक नित्यानंद सिंह को दोषी माना

-नियमानुसार वित्तीय अनियमितता सिद्व होने पर चेयरमैन को पदच्यूत करने का प्राविधान

बस्ती। कहा भी जाता है, अगर बाबू चाह जाए तो साहब कुछ भी नहीं कर सकते, यह तब होता है, जब साहब लोग बाबूओं पर आंख बंद करके भरोसा करते है। यह भी सही है, कि सारे नियम कानून की जानकारी साहबों को नहीं होती, खासतौर पर किसी डीएम को। पत्रावली किस अनुभाग को जानी है, इसकी जानकारी किसी डीएम को नहीं बल्कि संबधित बाबूओं को होती है, साहब तो उसी पत्रावली और पत्र पर हस्ताक्षर यह जानकार और विष्वास करके कर देते हैं, कि उनके बाबू ने जो किया होगा वह सही होगा। वहीं पर अगर किसी को बचाना होता है, तो बाबू साहबों को ही घूमा देते है। बाबू बिना किसी लालच में किसी को नहीं बचाता और न ही वह किसी की मदद करता है। इसी लिए बाबूओं के बारे में कहा जाता कि जो काम पीएम से नहीं हो सकता, वह काम बाबू से हो सकता, बस उसे उसकी कीमत मिलनी चाहिए। ऐसा ही एक मामला नगर पंचायत रुधौली की जांच में सामने आया। शासन के निर्देश पर तत्कालीन डीएम अंद्रा वामसी ने इसकी जांच तत्कालीन सीआरओ से करवाया। ध्यान देने वाली बात यह है, कि इस संबध में सारे पत्राचार नगर विकास अनुभाग-1 से हो रहा हैं, लेकिन जो पत्र डीएम की ओर से कार्रवाई करने के लिए भेजा गया वह अनुभाग-3 को भेजा गया। अब सवाल उठ रहा है, कि जब पत्राचार अनुभाग-1 से हो रहा है, तो कार्रवाई वाला पत्र भी अनुभाग-1 को जाना चाहिए था, लेकिन वह अनुभाग-3 को क्यों और किस मंशा से भेजा गया? हुआ भी वही, एक साल से अधिक हो गए, लेकिन आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, यहां तक छह लाख 10 हजार 740 भी डूब गया। इसमें एक खेल और खेला गया, जिसे बाबू ने वैसे नहीं खेला होगा, क्यों कि सवाल चेयरमैन की कुर्सी का जो था। नियमानुसार अगर किसी नगर पंचायत या पालिका के चेयरमैन पर वित्तीय अनियमितता का आरोप साबित हो जाता है, तो उसे पदच्यूत करने का प्राविधान है। अगर यहां पर डीएम पदच्यूत करने की संस्तुति कर देते तो आज धीरसेन कुर्सी पर न बैठे होते। जिसे पदच्यूत करने की संस्तुति की जानी चाहिए, उससे रिकवरी करवाने को लिखा गया, वह भी नहीं हुआ। क्या इसे आप किसी डीएम की चूक या अनभिज्ञता या फिर बचाने का तरीका समझेगें? इसी लिए बार-बार कहा जा रहा है, कि नगर पंचायतों और नगर पालिका में बढ़ रहे भ्रष्टाचार के लिए सबसे अधिकारी ही जिम्मेदार होते है। सवाल उठ रहा है, कि क्यों कार्रवाई वाला पत्र अनुभाग-3 को भेजा गया, क्यों नहीं अनुभाग-1 को भेजा गया? कौन इसके लिए जिम्मेदार एलबीसी कार्यालय या तत्कालीन डीएम? जांच में जो बाते सामने आई, उसमें 70 श्रमिकों/कार्मिकों के भुगतान के लिए छह लाख 20 हजार 915 रुपया निकाले गए। जिसमें दो श्रमिकों का 10175 रुपया राज्य वित्त योजना के खाते में 24 जुलाई 24 को जमा कर दिया गया। अवशेष छह लाख दस हजार 740 रुपया का अनिसमित अथवा बिना विधिक प्रक्रिया को अपनाएं मनमाने तरीके से भुगतान कर दिया गया।शासन ने पूछा कि इसके लिए कौन-कौन जिम्मेदार? इसके लिए डीएम ने चेयरमैन धीरसेन निषाद, तत्कालीन ईओ राम समुख और तत्कालीन लिपिक नित्यानंद सिंह को दोषी बताया। कार्रवाई भी नहीं हुई और सरकार का लाखों रुपया अलग से डूब गया, वह भी साहब और एलबीसी कार्यालय के चलते। वैसे ही भ्रष्टाचारियों का मन नहीं बढ़ता उन्हें अच्छी तरह मालूम हैं, कि बचाने के लिए सांसद और विधायक तो होते ही है, साहब और बाबू भी होते है। किसी ने यह जानने का प्रयास ही नहीं किया कि क्यों नहीं दोषियों के खिलाफ अभी तक कार्रवाई हुई और क्यों नहीं रिकवरी हुई? इसी लिए बार-बार कहा जाता है, कि नगर पंचायतों और पालिका के धन को चेयरमैन और ईओ नीजि धन समझकर इस्तेमाल करते है। इन्हें किसी का भी डर नहीं, जिसका डर वह उनका सहयोगी बना हुआ है।

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