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क्या महेश सिंह राजनीति के शिकार हुए?

क्या महेश सिंह राजनीति के शिकार हुए?

-जब जेडीए ने सकचन पांडेय, मानवेंद्र श्रीवास्तव और महेश सिंह के तबादले के लिए डीओ लिखा तो क्यों सिर्फ महेश सिंह का हुआ? क्यों नहीं तीनों का हुआ?

-कृषि विभाग में एक नहीं दो नहीं तीन नहीं बल्कि एक दर्जन से अधिक कर्र्मी 15-20 साल तक जमे हुए

-इनमें राजेंद्र गुप्त, सचिन पांडेय, अमित कुमार, शचि वर्मा, मानवेंद्र श्रीवास्तव, विनोद कुमार, मनीष कुमार अरोरा, मनोज सिंह, नलिनी सिंह, अनिल कुमार और महेश सिंह का नाम शामिल

-जिले का यह पहला ऐसा विभाग हैं, जिसके अधिकारी नीजि लाभ के लिए बाबूओं का गलत/सही तरीके से इस्तेमाल करते

-इस विभाग में जो बाबू सबसे अधिक अधिक कमाकर साहबों को देता है, उसे साहब सिर आखों पर बैठाते

-जो बाबू कमाकर देने से इंकार कर देता हैं, उसे जबरिया और नियम विरुद्व वीआरएस देकर उसे सबक सिखा देते, ताकि कोई इंकार न कर सकें

-कोई ऐसा बाबू नहीं होगा, जिस पर अनियमितता का आरोप न लगा हो, इस विभाग में एकता नाम की कोई चीज नहीं, एक दूसरे को पटकनी देने में लगे रहते

बस्ती। कृषि विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों को रजिस्टी विभाग के लोगों से कुछ सीखना चाहिए। इस विभाग में सबसे अधिक घोटाला होता है, और इस घोटाले में विभाग से लेकर प्रशासनिक अधिकारी तक शामिल रहते है। लेकिन आज तक एक भी कर्मचारी ने न तो अपने अधिकारी और न ही अपने समकक्ष के खिलाफ आवाज उठाया। यह पहला ऐसा विभाग होगा, जहां पर साइलेंट एकोनामिक क्राइम होता हैं, पानी पिलाने वाले प्राइवेट व्यक्ति को भी उसका हिस्सा मिलता है। लेकिन कृषि विभाग के अधिकारी और कर्मचारी अपने लाभ के लिए एक दूसरे का गला काटने को तैयार रहते है। मलाईदार पटल पाने के लिए यह लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है। इस विभाग में ईमानदार कर्मियों के लिए कोई स्थान नहीं है। जो जितना अधिक बेईमान और चोर है, साहब लोग उसकी उतनी ही तारीफ करते है। कहने को तो यह विभाग किसानों के हित के लिए हैं, लेकिन यहां किसान हित की नहीं बल्कि स्वंय के हित की बात अधिक होती है। एक-एक बाबू पर 50-70 लाख के घोटाले का आरोप साबित हो चुका है, कार्रवाई के लिए बार-बार लिखा जाता है, कार्रवाई करने को कौन कहें, उसे और मलाईदार पटल दे दिया, इस लिए दे दिया क्यों कि यह साहबों के लिए फलदायक साबित होते है। इस विभाग में स्थानांतरण नीति की खुलकर धज्जियां उड़ाई जाती है। 15-20 साल से किसी का तबादला नहीं होता। अघिकारी डीओ लिखते रहते हैं, लेकिन बाबू उपर पहुच जाता है, और डीओ को रददी की टोकरी में डलवा देता है। इस विभाग में एकता की इतनी कमी है, जिसका फायदा अधिकारी खूब उठा रहे है। बाबूओं को लगता ही नहीं हैं, कि वे लोग एक ही सवंर्ग के है। अंदर ही अंदर यह लोग एक दूसरे का पर काटने में लगे रहते है। इस विभाग में न तो ईमानदार अधिकारी की आवष्यकता है, और न ईमानदार बाबू की है। अगर कोई बाबू ईमानदारी दिखाना चाहता है, तो उसे नियम विरुद्व जबरिया वीआरएस दे दिया जाता है, बाबू अपने साहब को यह तक नहीं समझा पाता कि साहब आप को वीआरएस देने का कोई अधिकार नहीं हैं, चूंकि बाबू को भी खुन्नस निकालनी रहती है, इस लिए वह भी साहब के सामने वीआरएस की पत्रावली लाकर रख देता है। क्या कभी किसी ने सुना होगा कि बाबू अर्जित अवकाश मांग रहा हैं, और साहब उसे इस लिए वीआरएस दे देते हैं, क्यों कि  बाबू ने साहब के कालेेकारनामें का हिस्सा बनने से इंकार कर दिया। आज यह केस पूरे विभाग के गले की फंास बना हुआ है।


अब आ जाइए क्यों सिर्फ महेश सिंह का ही तबादला हुआ जब कि इसकी श्रेणी में राजेंद्र गुप्त, सचिन पांडेय, अमित कुमार, शचि वर्मा, मानवेंद्र श्रीवास्तव, विनोद कुमार, मनीष कुमार अरोरा, मनोज सिंह, नलिनी सिंह, अनिल कुमार भी आते है। सवाल यह भी उठ रहा है, कि जब जेडीए ने सचिन पांडेय, मानवेंद्र श्रीवास्तव और महेश सिंह के तबादले के लिए डीओ लिखा तो क्यों सिर्फ महेश सिंह का ही हुआ? आखिर मानवेंद्र श्रीवास्तव और सचिन पांडेय ने कौन सा ऐसा खेल खेला कि बच गए। आखिर वह खेल महेश सिंह क्यों नहीं खेल पाए? वैसे भी महेश सिंह अन्य बाबूओं के आंख की किरकरी बने हुए थे। इसी बहाने सभी ने अपना खुन्नस निकाल लिया। इस विभाग में कोई ऐसा बाबू और अधिकारी नहीं होगा, जो भ्रष्टाचार में लिप्त न हो। बताते हैं, कि यह लोग भ्रष्टाचार इस लिए करते हैं, कि ताकि उस पैसे का इस्तेमाल तबादला और जांच में इस्तेमाल कर सके।

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