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जज’ साहब देखिए, ‘आप’ के ‘कार्यालयों’ में ‘प्राइवेट’ मुंषी ‘भ्रष्टाचार’ कर ‘रहें’!

जज’ साहब देखिए, ‘आप’ के ‘कार्यालयों’ में ‘प्राइवेट’ मुंशी ‘भ्रष्टाचार’ कर ‘रहें’!

-आखिर इन्हें वेतन/मानदेय कौन देता, जब इन्हें कुछ नहीं मिलता तो यह रात दिन क्यों खपते, आखिर इनके परिवार का भरण-पोषण कैसे होता और कौन करता?

-आर्डर शीट, न्यायालयों के गोपनीय अभिलेखों एवं रजिस्टर प्राइवेट लोगों के हस्तलेख में देखे जा रहे, सरकारी बाबू अपना काम खुद नहीं करते बल्कि प्र्राइवेट लोगों के द्वारा ही करवाते, वसूली भी सही लोग करते

-जमानतदारों के कागजों का सत्यपान अभियुक्तगण/परिजनों को देने के नाम पर हजारों लेते हैं, ताकि जल्दी रिहाई हो सके, जबकि नियम यह हैं, कि सत्यपान तहसीलों और थानों को कागज भेजकर कराया जाए, लेकिन पैसा मिलते ही सारे नियम को तोड़ देते, जो पैसा देने की स्थित में नहीं रहते उनका काम नियम से होत

-पैसे वाले को सुबह को दस्ती कागज मिल जाता, और शाम तक रिहाई हो जाती, वहीं गरीबों को रिहा होने में न जाने कितने दिन लग जाता, यह खेल बड़े पैमानें पर और सभी न्यायालयों के कार्यालयों के प्राइवेट मुसियों और बाबूओ की मिली भगत से हो रहा

-मोटरवाहन एक्ट के अपराधों के मामले में भी बड़ा खेल हो रहा, इसमें भी हजारो-हजार की वसूली होती, जमा किए अर्थदंड की पक्की रसीद नहीं दी जाती, जुर्माना अधिक लगता और रसीद कम की दी जाती

-अगर बाबू और बिचौलिया खड़ा होगा, तो मामूली जुर्माना लगता, अगर कहीं वकील साहब खड़े हो गए तो जुर्माने की रकम आठ-दस हजार तक पहुंच जाती, इसी लिए अभियुक्त वकीलों के पास नहीं बल्कि बाबूओं और बिचौलियों के पास जाना पसंद करता

-जानबूझकर आन लाइन पोर्टल पर तारीख कुछ और होती और फाइलों में कुछ और होती, यह खेल इस लिए खेला जाता, ताकि मुवक्किल प्राइवेट मुंशी के पास कार्यालय जाए और सही तारीख जानने के लिए मेहनताना दें, भेंट के नाम पर मुहंमागी रकम ली जाती

बस्ती। जिस न्यायालयों के पारदर्शिता , ईमानदारी और सच्चाई के बारे में लोग जानते और समझते थे, और कहते थे, कि सबकुछ बिक सकता है, लेकिन न्यायालय नहीं, जितना विष्वास जनता को न्यायालय पर रहता आया, और है, उतना विष्वास शायद जनता पीएम पर नहीं करती। लेकिन आज जिस तरह से बड़े-बड़े न्यायाधीश सवालों के कटघरें में खड़े हो रहे हैं, और न्यायालयों और उनके कार्यालयों में धीरे-धीरे भ्रष्टाचार का समावेश हो रहा है, उससे न्यायालयों के प्रति आम लोगों का विष्वास थोड़ा डगमगाया और कम हुआ। अब तो लोग यह तक कहने लगें कि न्याय अब एक समान नहीं रह गया, न्याय पाना अब गरीबों और आर्थिक रुप से कमजोर लोगों के लिए उतना आसान नहीं रहा, जितना सबल और पैसे वालों के लिए। पैसे वालों को तो बड़े से बड़ा वकील मिल जाता, लेकिन कमजोर और गरीबों को सरकारी वकीलों पर ही निर्भर रहना पड़ता। जाहिर सी बात हैं, अधिकांश बड़े वकील सरकारी वकीलों पर भारी पड़ते नजर आतें हैं, इसी लिए अब सामान्य अभियुक्त भी प्राइवेट वकीलों की तरफ भाग रहा है। सरकारी वकीलों के पास गरीब मुवक्किल का अनुपात दिन प्रति दिन कम होता जा रहा, इसका कारण प्राइवेट वकीलों की अपेक्षा केस में रुचि कम लेना माना जा रहा। क्यों कि इन्हें अच्छी तरह मालूम हैं, कि केस हारे या चाहें जीते वेतन/मानदेय में कोई कटौती होगी। अगर इनका मानदेय केस जीतने पर आधारित हो जाए तो रुचि बढ़ सकती है।

अधिकांश अधिवक्तताओं का कहना है, कि अगर न्यायालयों से भेंट समाप्त हो जाए और प्राइवेट मुसियों को न्यायालय से मुक्त करा दिया तो जनता पर 101 फीसद विष्वास न्यायालयों पर बढ़ जाएगा। कहते हैं, कि जिन न्यायालयों के कार्यालयों को प्राइवेट मंुसी चला रहे हो, उन न्यायालयों में भ्रष्टाचार बढ़ेगा ही। अनेक अधिवक्ताओं का कहना और मानना है, कि कमाई के मामले में 100 अधिवक्ता के बराबर एक प्राइवेट मुंसी है। अधिवक्ता को तो दो रुपया फीस मिलता हैं, लेकिन एक मुंसी डेली हजारों रुपया फाइल उलटने-पलटने और सही तारीख बताने के नाम पर कमा लेता है। यह भी कहते हैं, कि जो अधिवक्ता मुवक्किल का मुकदमा लड़ता हैं, उसे न्याय दिलाता है, उस अधिवक्ता को फीस देने के लिए मुवक्किल के पास पैसा नहीं रहता, लेकिन मुंसी और भेंट देने के नाम पर उसके पास पैसा अवष्य रहता है। एक वकील साहब का कहना है, कि मुवक्किल से अगर फीस मांगों तो वह बहाना बनाता है, लेकिन अगर साहब के नाम पर पैसा मांगों को वह आसानी से दे देता। यह सवाल सिर्फ जिले के न्यायालयों के लिए नहीं बल्कि सभी न्यायालयों के लिए उठ रहा कि आखिर प्राइवेट मुंसियों को वेतन/मानदेय कौन देता? और जब इन्हें कुछ नहीं मिलता तो यह रात दिन क्यों खपते? आखिर इनके परिवार का भरण-पोषण कैसे होता और कौन करता?। आर्डर शीट, न्यायालयों के गोपनीय अभिलेखों एवं रजिस्टर, प्राइवेट लोगों के हस्तलेख में देखे जा सकते हैं, सरकारी बाबू अपना काम खुद नहीं करते बल्कि प्र्राइवेट लोगों के द्वारा ही करवाते, वसूली भी यही लोग करते है। जमानतदारों के कागजों का सत्यपान अभियुक्तगण/परिजनों को हाथों-हाथों देने के नाम पर हजारों लेते हैं, ताकि जल्दी रिहाई हो सके, जबकि नियम यह हैं, कि सत्यापन तहसीलों और थानों को कागज भेजकर कराया जाए, लेकिन पैसा मिलते ही सारे नियम को तोड़ देते, जो पैसा देने की स्थित में नहीं रहते उनका काम नियम से करते। पैसे वाले को सुबह दस्ती कागज मिल जाता, और शाम तक रिहाई हो जाती, वहीं गरीबों को रिहा होने में न जाने कितने दिन लग जातें, यह खेल बड़े पैमानें पर और सभी न्यायालयों के कार्यालयों के प्राइवेट मुसियों और बाबूओं की मिली भगत से हो रहा। मोटरवाहन एक्ट के अपराधों के मामले में भी बड़ा खेल हो रहा, इसमें भी हजारों-हजार की वसूली होती, जमा किए अर्थदंड की पक्की रसीद नहीं दी जाती, जुर्माना अधिक लगता और रसीद कम की दी जाती। अगर बाबू और बिचौलिया खड़ा होता, तो मामूली जुर्माना लगता, लेकिन अगर कहीं वकील साहब खड़े हो गए तो जुर्माने की रकम आठ-दस हजार तक पहुंच जाती, इसी लिए अभियुक्त वकीलों के पास नहीं बल्कि बाबूओं और बिचौलियों के पास जाना पसंद करतें। जानबूझकर आन लाइन पोर्टल पर तारीख कुछ और होती और फाइलों में कुछ और होती, यह खेल इस लिए खेला जाता, ताकि मुवक्किल, प्राइवेट मुंशी के पास कार्यालय जाए और सही तारीख जानने के लिए मेहनताना दें, भेंट के नाम पर मुहंमागी रकम ली जाती।

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