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डीडीओ साहब आप भले ही अधिकारी, लेकिन हम भी आप से कम नहीं!

डीडीओ साहब आप भले ही अधिकारी, लेकिन हम भी आप से कम नहीं!

-सदर प्रमुख की लाज तो बच गई, लेकिन डीडीओ अपनी लाच को नहीं बचा पाए, प्रियकां चौधरी को वापस करना ही पड़ा

-सारे नियम कानून तोड़कर ग्राम विकास अधिकारी प्रिंयका चौधरी को जिला विकास अधिकारी ने सदर ब्लॉक में अटैच कर दिया, कहा कि वेतन लेगी साउंघाट से और काम करेंगी सदर में   

-आखिर एक महिला सचिव के लिए डीडीओ ने क्यों तोड़ा नियम कानून, क्या यही है, सुशासन, जब वापस लेना ही था, तो क्यों किया था तबादला

-इस तरह डीडीओ को उन सभी दस सचिवों के तबादले के आदेश को वापस ले लेना चाहिए, जिनका इन्होंने

-जो प्रिंयका चौधरी डीडीओ के आदेश को पलटने की क्षमता रखती हो उसकी राजनैतिक पहुंच का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता

बस्ती। आज के अधिकारी इतना कमजोर हो गएं हैं, कि वह अपने ही आदेश की रक्षा नहीं कर पा रहें हैं। वह अपने उच्चाधिकारियों को यह तक नहीं समझा पा रहे हैं, कि अगर उन्होंने अपने आदेष को वापस लिया तो उनकी और प्रशासन की कितनी बदनामी होगी। ऐसे जिला विकास अधिकारी के होने से क्या फायदा जब वह एक सचिव का तबादला करने पर अडिग न रह सके। जीत प्रिंयका चौधरी की नहीं हुई बल्कि डीडीओ की हार हुई है। कारण चाहें जो भी रहा हो, लेकिन प्रिंयका चौधरी ने जिला विकास अधिकारी को अपनी राजनैतिक ताकत का एहसास करा दिया। दिखा दिया कि आप भले ही अधिकारी हैं, लेकिन हम भी आपसे कम नहीं है। प्रियंका चौधरी को सदर ब्लॉक में अटैच करके जिला विकास अधिकारी ने कमजोर अधिकारी होने का परिचय दिया है। एक सप्ताह पहले जनहित और शासकीय हित में इनका तबादला बस्ती सदर ब्लॉक से सांउघाट किया गया, और फिर जनहित और शासकीय कार्य हित का हवाला देकर उन्हें सदर ब्लॉक में अटैच कर दिया, जबकि डीडीओ को अच्छी तरह मालूम कि सरकार ने अटैचमेंट की प्रक्रिया को पूरी तरह समाप्त कर दिया। सवाल उठ रहा है, कि डीडीओ के सामने एक ही सप्ताह में ऐसी कौन सी मजबूरी आ गई कि उन्हें अपने ही आदेश को नियम विरुद्व वापस लेना। अधिकारी दो सूरतों में आदेश को बदलने के लिए तैयार होता है, राजनैतिक दबाव या फिर लक्ष्मीपति का दबाव। राजनैतिक दबाव को तो समझा जा सकता है, क्यों कि सभी को मालूम हैं, इन्हें प्रमुखजी का करीबी माना जाता है। प्रमुखजी को भी इस तरह के मामले में अपनी इज्जत दांव पर नहीं लगानी चाहिए, पता नहीं कितने सचिव आते हैं, चले जाते हैं, लेकिन अगर प्रमुखजी लोग किसी सचिव के लिए प्रतिष्ठा बना लेगें तो अनेक आरोपों से बच नहीं सकते है। रही बात प्रिंयका चौधरी की तो इन्हें भी प्रतिष्ठा नहीं बनानी चाहिए। यह चाहे सदर रहे या साउंघाट क्या फर्क पड़ता है। इस प्रतिष्ठा के खेल में सबसे अधिक नुकसान जिला विकास अधिकारी की कुर्सी का हुआ। मजाक बनकर रह गया जिला विकास अधिकारी की कुर्सी। जो अधिकारी गलत/सही का निर्णय न ले सके, वह अधिकारी कहने लायक नहीं होता। किसी भी कुर्सी की गरिमा अधिकारी के क्रियाकलापों पर निर्भर करती है। किसी को सचिव या बाबू को यह नहीं लगना चाहिए, उनका साहब तो ऐसे ही है। सदर प्रमुखजी को तो कामयाबी मिल गई, लेकिन क्या महादेवा के विधायक दूधराम को कामयाबी मिल पाएगी? यह बेचारे इसी ब्लॉक के ग्राम पंचायत अधिकारी ललिता मौर्या का तबादला कराने के लिए एड़ी चोटी एक कर दिए, विभागीय मंत्री से भी कहा, डीएम से तीन बार मिले, फिर भी यह सचिव का तबादला नहीं करवा पाए। एक जनप्रतिनिधि यह है, और एक जनप्रतिनिधि राकेश कुमार श्रीवास्तव है। कौन जीता और कौन हारा, इसके बारे में कुछ न कहा जाए तो अच्छा है। सत्ता दल के सहयोगी विधायक को अपमानित करने में अधिकारियों ने कोई कसर नहीं छोड़ा। वहीं दूसरी तरफ सदर प्रमुख को हीरो बनाने के लिए सारे नियम कानून ताक पर रख दिए। सवाल उठ रहा है, कि दूधराम की जगह अगर विधायक अजय सिंह होते तो क्या प्रशासन उनके साथ वैसा कर पाता? जैसा दूधराम के साथ किया। चूंकि योगीजी के अधिकारियों को जनप्रतिनिधियों को अपमानित करने में मजा आता है।

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