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आशीष’ को तो गैरों का ‘आशीष’ मिला पर अपनों का नहीं!

आशीष’ को तो गैरों का ‘आशीष’ मिला पर अपनों का नहीं!


आशीष की सारी मांगे जायज थी, लेकिन भाजपाई इन्हें अपना समर्थन देने में हिम्मत नहीं जुटा पाए

-जीवन को दांव पर लगाने वाले आशीष शुक्ल सैनिक को अगर अपनों का साथ और समर्थन मिला होता तो कई मांगे पूरी हो जाती

-यह पहला ऐसा आंदोलन रहा, जिसमें भाजपा के लोग ही शामिल नहीं हुए, क्यों नहीं हुए यह बड़ा सवाल बना हुआ

-किसी नेता के साथ उसके समर्थक जनसमूह और उसकी पार्टी खड़ी होती हैं, न कि अधिकारी और दूसरी पार्टी की सरकार

-ग्राम पंचायत से लेकर देश की पंचायत तक जनता के साथ खुद को धोखा दे रहे जनप्रतिनिधि, लूटो खाओ ताली बजाओ यही जनप्रतिनिधियों और नेताओं का काम

-जो गलत हैं, उसका विरोध सीना ठोंक कर कीजिए, इतिहास आपको बागी कह सकता, लेकिन गुलाम नहीं

-भाजपा के पूर्व सांसद और तीन पूर्व विधायक कोतवाली में धरने पर बैठे थे, फिर भी कोतवाल को नहीं हटवा पाए कम से कम आषीष के आंदोलन से  कोतवाल तो निलंबित हुए, तब भी भाजपा की सरकार थी, और आज भी भाजपा का राज

-डीएम और एसपी का ज्ञापन लेने चले जाते, लेकिन पर्दे के पीछे जो खेल चल रहा था, उससे उनके कदम ठिठक गए, राजनीति की बड़ी सख्सियत कभी नहीं चाहेंगी कि कोई बड़ा लकीर खींचे

-आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को एकादमी में इसका प्रशिक्षण दिया जाता है, कि अनशनकारी के पास तब जाइए जब वह मरणासन्न अवस्था में, यही आशीष के साथ हुआ

-बस्ती ही नहीं लगभग हर जिले का प्रशासन उन राजनीतिक लोगों के प्रति निष्ठावान एवं समर्पित रहता है, जिसे जनता ने जीताया/हराया

-जब तक अधिकारी और कर्मचारियों को सत्ता का डर नहीं रहेगा, तब तक आमजनमानस को न्याय के लिए अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ेगी

-भाजपा जिला बस्ती में गुटबाजी का जिम्मेदार कौन? जो अकेले कमाने के लिए बस्ती को नष्ट कर दिया हो पूरी पार्टी की ऐसी तैसी कर दिया हो वहीं...

बस्ती। अपने जीवन को दांव पर लगाकर जनहित के लिए आमरण अनशन करने वाले आशीष शुक्ल ‘सैनिक’ ने छह दिन के आंदोलन में क्या खोया और क्या पाया? यह अलग बात है। लेकिन इन्हें जिस तरह का सभी वर्गो और विपक्ष के लोगों का आशीष मिला वह आशीष अपने कहे जाने वाले उनकी पार्टी और उसके नेताओं का नहीं मिला। जिले के एक जिम्मेदार भाजपाई ने तो यहां तक कह दिया कि उनके आंदोलन से भाजपा का कोई लेना देना नहीं है। इज्जत बचाने के लिए अस्पताल तक अवष्य चले गए। आषीष की सारी मांग जायज होने के बावजूद उनकी पार्टी के लोगों ने जिस तरह आंदोलन से किनारा कसा उसे लेकर जिले भर के भाजपाईयों की जग हंसाई हो रही है। कहा भी जाता है, कि किसी नेता के साथ उसके समर्थक जनसमूह और उसकी पार्टी खड़ी होती हैं, न कि अधिकारी और दूसरी पार्टी की सरकार। अगर अपनों का साथ और समर्थन मिला होता तो कई मांगे पूरी हो जाती। पूर्व सांसद और तीन विधायकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन सभी लोगों ने मिलकर कोतवाली में कोतवाल को हटाने के लिए धरना दिया था, फिर कोतवाल नहीं हटे, आठ माह बाद हटाए गए। कम से कम आशीष के आंदोलन के दूसरे दिन कोतवाल को तो निलंबित होना पड़ा, तब भी भाजपा की सरकार थी, और आज भी भाजपा की सरकार है। ग्राम पंचायत से लेकर देश की पंचायत तक जनप्रतिनिधि जनता के साथ खुद को धोखा दे रहे हैं, लूटो खाओ ताली बजाओ यही जनप्रतिनिधियों का काम रह गया है। नेता और कार्यकर्त्ता वही है, जो गलत का विरोध सीना ठोंक कर करें, इतिहास ऐसे लोगों को बागी तो कह सकता, लेकिन गुलाम नहीं। रही बात डीएम और एसपी का ज्ञापन लेने न जाना तो यह कब के चले गए होते, लेकिन पर्दे के पीछे जो खेल चल रहा था, उससे उनके कदम ठिठक गए, राजनीति की बड़ी सख्सियत कभी नहीं चाहेंगी कि कोई बड़ी लकीर खींचे। वैसे भी आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को एकादमी में इसका प्रशिक्षण दिया जाता है, कि अनशनकारी के पास तब जाना चाहिए जब वह मरणासन्न अवस्था में हो जाए, यही आषीष के साथ भी हुआ। बस्ती ही नहीं लगभग हर जिले का प्रशासन उन राजनीतिक लोगों के प्रति निष्ठावान एवं समर्पित रहता है, जिसे जनता ने जीताया/हराया। जब तक अधिकारी और कर्मचारियों को सत्ता का डर नहीं रहेगा, तब तक आमजनमानस को न्याय के लिए अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ेगी। सवाल उठाया जा रहा है, कि आखिर भाजपा जिला बस्ती में गुटबाजी का जिम्मेदार कौन? वह जो अकेले कमाने के लिए बस्ती को नष्ट कर दिया, और जिसके चलते पूरी पार्टी की ऐसी तैसी हो गई हो या फिर कोई और...। आशीष के बारे में यह तो कहा जा सकता है, कि वह किसी नेता के पिछलग्गू तो हो सकते हैं, पर अपना अधिकार अलग रखते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो वरिष्ठ नेताओं के मानमनौव्वल करने के बाद भी इन्हरेंने अपनी पत्नी को नगरपालिक अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ाया। अभी आषीष लखनउ में स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं, सभी की शुभकामनाएं उनके साथ है, पर, एक बड़ा प्रशन आशीष ने जनता के लिए छोड़ दिया, आने वाले दिनों में आशीष भाजपा में रहेगें या इनको आशीष देने वालों के साथ रहेगें? पालिका का अगला चुनाव यह अन्य किसी के साथ जाकर लड़ भी सकते है। फिर भी बस्ती के युवाओं के मन में आशीष ने अपनी पैठ बना ली है। लखनउ से वापस आने के बाद इनकी क्या रणनीति बनेगी यह तो वही बता सकते है। इस आंदोलन से तो एक बात साफ हो गया कि सरकार और षासन प्रशासन के प्रति लनता में व्यापक असंतोष है। बिना पैसे के कोई काम नहीं हो रहा है। जनप्रतिनिधियों का काम हो जा रहा है, जनता चाहें चूल्हें भाड़ में जाए। इसी लिए अब अच्छे लोग पार्टियों से जुड़ने से कतरा रहे है। उन्हीं में से भाजपा के सेकेंड या थर्ड लाइन के आशीष को अंनतः अपना जीवन दांव पर लगाना पड़ा। पर, कोई भाजपा उनका नैतिक समर्थन भी नहीं किया।

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