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आखिर जीती हुई बाजी महेश सिंह कैसे हारें?

आखिर जीती हुई बाजी महेश सिंह कैसे हारें?

  • -अंतिम समय तक जीत महेष सिंह की ही मानी जा रही थी, मिठाई बंाटने की तैयारी भी हो चुकी थी
  • -मगर न जाने जटाशंकर शुक्ल ने कौन सा ऐसा दांव खेला कि महेश सिंह का परिवार चारों खाने चित हो गया
  • -जिस परिवार में खुशी का माहौल होना चाहिए था, उस परिवार में अचानक सन्नाटा छा गया, प्रमुखी भी गई और इज्जत भी गई
  • -जिस परिवार में गम का माहौल होना चाहिए था, उस परिवार में अचानक खुशी का माहौल हो गया, मिठाई बंटने लगी
  • -बहु का चीरहरण भी हुआ, अपमानित भी हुए, मार भी गए और हार भी गए, इसी को कहते हैं, राजनीति का डर्टी गेम

बस्ती। गौर के प्रमुखी चुनाव में अगर महेष सिंह की बहु का चीरहरण होता, इनका परिवार अपमानित होता, परिवार के लोग मार भी खाते हैं, उसके बाद भी अगर हार मिलती है, तो इसे किसका दोष माना जाए, महेश सिंह के परिवार की लचर पैरवी का या फिर जटिल न्यायिक प्रक्रिया का। अधिवक्ताओं का कहना और मानना हैं, कि मुवक्किल को किसी भी मुकदमें को हल्के में नहीं लेना चाहिए, उसे हमेशा अपने विरोधी से सावधान रहना चाहिए, विरोधी के हर चाल पर नजर रखनी चाहिए। कहते हैं, कि अधिवक्ता किसी मुवक्किल का मुकदमा तो लड़ सकता है, लेकिन मुकदमें की रखवाली नहीं कर सकता। मुकदमे की रखवाली तो मुवक्किल को ही करनी पड़ेगी। सबकुछ अधिवक्ता पर छोड़ देना हार मिलने जैसा होता है। अधिकांश अधिवक्ता भी हैरान है, कि कैसे जीती हुई बाजी पलट गई, कोई नहीं कह रहा था, कि बाजी महेश सिंह के हाथ से निकल जाएगी। प्रमुखी भी महेष सिंह के हाथ से गई और 30 साल का साम्राज्य भी चला गया। अपमान का जहर अलग से परिवार को पीना पड़ा। इस न्याय और अन्याय की लड़ाई में जटाशंकर षुक्ल नामक एक ऐसे व्यक्ति की जीत हुई, जिसे चारों धाम का यात्री कहा जाता है। आज भी लोगों को विष्वास नहीं हो रहा है, कि महेश सिंह हार गए, और जटाषंकर षुक्ल जीत गए। सवाल उठ रहा है, कि आखिर जीती हुई बाजी महेश सिंह हारे कैसे? और हारी हुई बाजी जटाशंकर शुक्ल जीते कैसे? सवाल उठ रहा है, कि आखिर जटाशंकर शुक्ल ने अंतिम समय में ऐसा कौन सा कानूनी दांव खेला कि महेष सिंह का परिवार चारों खाने चित हो गया। जिस परिवार में खुशी का माहौल होना चाहिए था, उस परिवार में अचानक सन्नाटा पसर गया, और जिस परिवार में गम का माहौल होना चाहिए था, उस परिवार में अचानक खुशी का माहौल हो गया, मिठाई बंटने लगी। जटाशंकर शुक्ल की कुशल रणनीति को महेष सिंह भेद नहीं पाए। चूंकि इज्जत तो दोनों परिवारों की दांव पर लगी हुई थी, लेकिन श्रीशुक्ल अपने परिवार की न सिर्फ इज्जत को बचाया, बल्कि प्रमुखी को भी बरकरार रखा।

कहा जाता है, कि ब्लॉक हाथ में आने के बाद जटाशंकर शुक्ल के परिवार ने अपनी आर्थिक स्थित को इतना मजबूत कर लिया, कि अब इन्हें कोई चिंता नहीं। इस परिवार ने नाम और षोहरत तो नहीं कमाया मगर पैसा बहुत कमाया। यही इस परिवार की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। गत चुनाव में जिस तरह महेश सिंह की बहु की प्रतिष्ठा नीलाम की गई वह सब हारे हुए दोनों जनप्रतिनिधियों के ईशारे पर हुआ। महेश सिंह जब तक घटना स्थल पर पहुंचे तब तक सबकुछ लुट चुका था। इसका पुरस्कार भी भाजपा ने महेष सिंह के उस बेटे को गन्ना समिति का चेयरमैन बनाकर दिया, जिनकी पत्नी का चीरहरण भाजपा के लोगों के द्वारा किया और कराया गया। ऐसे पुरस्कार की कल्पना कोई भी खुददार व्यक्ति नहीं कर सकता। सवाल उठ रहा है, कि जीत की बाजी हार में बदलने के लिए महेष सिंह अधिक जिम्मेदार हैं, या फिर उनका बेटा अरविंद सिहं। लोगों को लगने लगा था, कि अरविंद सिंह के भाजपा का हाथ थामने के बाद उसका लाभ मुकदमें में मिलेगा। यह भी सही है, कि महेश सिंह के परिवार के आगे जटाशंकर शुक्ल के लोग कहीं नहीं टिकते। लेकिन सभी घान पढ़ाने में माहिर फर्मे बनाकर दोनों हाथों से लडडू खा रहे है। यह किसी को भी नहीं छोड़ रहे है। न्याय पालिका में चल रहे मुकदमें में आम चर्चा यही थी, कि महेश सिंह के पक्ष में फैसला होगा? फैसला क्यों और कैसे पलट गया, इसकी न्यायिक समीक्षा तो नहीं की जा सकती, लेकिन इतना तो तय है, कि जटाशंकर की कूटनीति महेष की चालाकी पर भारी पड़ी। कहा जाता है, कि अगर महेश सिंह ने ईमानदारी से पैरवी किया होता तो आज परिणाम कुछ और होता। महेश का यह अंहकार था, कि अब तो मेरा बेटा भाजपाई हो गया। महेश सिंह और जटाशंकर षुक्ल के सामाजिक सम्मान में भी जमीन आसमान का अंतर है। नकली प्रमुख होने के बाद भी इन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जितना उपेक्षित चंद्रभान षुक्ल को मिला। महेष सिंह इस लिए हारे क्यों कि उनके उपर विपक्ष का चाल, चेहरा और चरित्र भारी पड़ गया।

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